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प्राचीन भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ

जगदीश चन्द्र जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1239
आईएसबीएन :81-263-0915-6

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह.....

Prachin Bharat ki Shreshth Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्राचीन भारतीय साहित्य लोक-कथाओं का एक अक्षय भण्डार है। कथा के माध्यम से जीवन और जगत् की सम्पूर्ण जानकारी तथा मानव जीवन को उन्नत बनाने की शिक्षा प्राचीन साहित्य की विशेषता रही है। ये इतनी समर्थ ऐसी मर्म-छूती सहज और स्वाभाविक कथा-कहानियाँ हैं कि युगों तक मानव को इनसे प्रेरणा मिलती रही है और आज भी वे अपने सामाजिक सन्दर्भों में उतनी ही सक्षम है।

भूमिका

बौद्ध वाड़्मय का प्राचीनतम भाग त्रिपिटक नाम से जाना जाता है। इसमें बुद्ध भगवान्के उपदेशों का संग्रह है। यह साहित्य पालि भाषा में है। इसका विस्तार इस प्रकार है-

(1) विनयपिटक, (2) सुत्तपिटक, (3) अभिधम्मपिटक।
(1) विनयपिटक -(क) सुत्तविभंग (पाराजिक, पाचित्तिय), (ख) खन्धक (महावग्ग, चुल्लवग्ग), (ग) परिवार और (घ) पातिमोक्ख।
(2) सुत्तपिटक- (क) दीघनिकाय, (ख) मज्झिमनिकाय, (ग) संयुत्तनिकाय, (घ) अंगुत्तरनिकाय, (ङ) खुद्दकनिकाय।
खुद्दकनिकाय के 15 ग्रन्थ हैं-(1) खुद्दक पाठ, (2) धम्मपद, (3) उदान, (4) इतिवुत्तक, (5) सुत्तनिपात, (6) विमानवत्थु, (7) पेतवत्थु, (8) थेरगाथा, (9) थेरीगाथा, (10) जातक, (11) निद्देस, (12) पटिसंभिदामग्ग, (13) अपदान, (14) बुद्धवंस, और (15) चरियापिटक।
(3) अभिधम्मपिटक- (क) धम्मसंगणि, (ख) विभंग, (ग) धातुकथा, (घ) पुग्गलपञ्ञति, (ङ) कथावत्थु, (च) यमक, (छ) पट्ठान।

बौद्ध-परम्परा के अनुसार यह त्रिपिटक तीन संगीतियों से स्थिर हुआ। कहा जाता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद सुभद्र नामक भिक्षु ने अपने साथियों से कहा-‘‘आवुसो, शोक मत करो, रुदन मत करो ! हम लोगों को महाश्रमण से छुटकारा मिल गया है। वे हमेशा कहते रहते थे-‘यह करो, यह मत करो’। लेकिन अब हम जो चाहेंगे करेंगे। जो नहीं चाहेंगे, नहीं करेंगे।’’
सुभद्र भिक्षु के ये वचन सुनकर महाकाश्यप स्थविर को भय हुआ कि कहीं सद्धर्म का नाश न हो जाए। अतएव उन्होंने विनय और धर्म के संस्थापन के लिए राजगृह में 500 भिक्षुओं की एक संगीति बुलवायी।
बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति बुद्ध-परिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद वैशाली में बुलाई गयी। कहते हैं कि एक बार यश नामक स्थविर वैशाली आ गये। वहाँ उन्होंने वज्जि भिक्षुओं का शिथिलाचार देखा तो उन्होंने भिक्षुओं को समझाया, मगर भिक्षु नहीं माने। उन्होंने मिलकर यश स्थविर को संघ से बाहर कर दिया। इस पर यश ने अनेक अर्हत् भिक्षुओं को वैशाली में इकट्ठा किया।

बुद्ध-परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद पाटलिपुत्र में सम्राट अशोक के समय तिस्स मोग्गलिपुत्त ने तीसरी संगीति बुलायी, जिसमें थेरवाद का उद्धार किया गया।
वर्तमान त्रिपिटक वही त्रिपिटक है जो सिंहल के राजा वट्टगामणी के समय प्रथम शताब्दी के अन्तिम रूप से स्थिर हुआ माना जाता है।
बौद्ध त्रिपिटक अनेक दृष्टियों से बहुत महत्त्व का है। इसमें बुद्धकालीन भारत की राजनीति, अर्थनीति, सामाजिक व्यवस्था, शिल्पकला, संगीत, वस्त्र-आभूषण, वेष-भूषा, रीति-रिवाज तथा ऐतिहासिक, भौगोलिक, व्यापारिक आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तार से प्रतिपादन है। उदाहरण के लिए, विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार-व्यवहार सम्बन्धी नियमों का विस्तृत वर्णन है। ‘महावग्ग’ में तत्कालीन जूते, आसन, सवारी, ओषधि, वस्त्र, छतरी, पंखे आदि का उल्लेख है। ‘चुल्लवग्ग’ में भिक्षुणियों की प्रव्रज्या आदि का वर्णन है। यहाँ भिक्षुओं के लिए जो शलाका-ग्रहण की पद्धति बताई गयी है। वह तत्कालीन लिच्छवि गणतंत्र के ‘वोट’ (छन्द) लेने के रिवाज की नकल है। उस समय के गणतन्त्र शासन में कोई प्रस्ताव पेश करने के बाद, प्रस्ताव को दुहराते हुए उसके विषय में तीन बार तक बोलने का अवसर दिया जाता था। तब कहीं जाकर निर्णय सुनाया जाता था। यही पद्धति भिक्षु संघ में स्वीकार की गयी थी।

‘सूत्रपिटक’ (सुत्तपिटक) के अन्तर्गत दीर्घनिकाय में पूरणकस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, पकुध कच्चायन, निगंठ नातपुत्त और संजय वेलट्ठिपुत्त नामक छह यशस्वी तीर्थकरों का मत-प्रतिपादन, लिच्छवियों की गण-व्यवस्था, अहिंसामय यज्ञ, जात-पाँत का खण्डन आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है। ‘मज्झिमनिकाय’ में बुद्ध की चारिका, नातपुत्त-मत-खण्डन, अनात्मवाद, वर्ण-व्यवस्था-विरोध, मांसभक्षण-विचार आदि विषयों का प्रतिपादन है। ‘संयुत्तनिकाय’ में कोसल के राजा पसेनदि और मगध के राजा अजातशत्रु के युद्ध का वर्णन है।

‘अंगुत्तरनिकाय’ में सोलह जनपद आदि का उल्लेख है। ‘खुद्दकनिकाय’ के अन्तर्गत ‘धम्मपद’ और सुत्तनिपात’ बहुत प्राचीन माने जाते हैं जिनका बौद्ध साहित्य में ऊँचा स्थान है। ‘सुत्तनिपात’ में सच्चा ब्राह्मण कौन है ? वास्तविक मांस-त्याग किसे कहते हैं ? आदि विषयों का मार्मिक वर्णन है। ‘थेरगाथा’ और ‘थेरीगाथा’ में अनेक भिक्षु-भिक्षुणियों की जीवनचर्या दी गई है, जिन्होंने बड़े-बड़े प्रलोभनों को जीतकर निर्वाण पदवी पायी।
जातकों में बुद्ध के पूर्वभवों की कथाएँ हैं, जिनके अनेक दृश्य साँची, भरहुत आदि के स्तूपों पर अंकित हैं। ये 150 ईसवी सन् पूर्व के आसपास के माने जाते हैं। ये कथाएँ विश्व-साहित्य की दृष्टि से बहुत महत्त्व की हैं, और विश्व के प्रायः हरेक कोने में पहुँची हैं।
‘अभिधम्मपिटक’ में बौद्धधर्म में मान्य पदार्थ और उनके भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन है। बौद्धधर्म के इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्व का ग्रन्थ है। इसकी रचना सम्राट् अशोक के समय तिस्समोग्गलिपुत्त ने की थी।
बौद्ध विद्वानों ने उक्त त्रिपिटक की अनेक व्याख्याएँ आदि लिखी हैं, जिन्हें अट्ठकथा (अर्थकथा) के नाम से कहा जाता है। अट्ठकथाएँ भी पालि भाषा में हैं। कहते हैं जब महेन्द्र स्थविर बुद्ध शासन की स्थापना करने के लिए सिंहल गये तो वे त्रिपिटक के साथ-साथ उनकी अट्ठकथाएँ भी लेते गये। तत्पश्चात् आचार्य बुद्धघोष ने ईसवी सन की 5वीं शताब्दी में इन सिंहल अट्ठकथाओं का पालि में रूपान्तर किया। अट्ठकथाएँ ये हैं-

1. समन्तपासादिका (विनय-अट्ठकथा)
2. सुमंगलविलासिनी (दीघनिकाय-अट्ठकथा)
3. पपंचसूदनी (मज्झिमनिकाय-अट्ठकथा)
4. सारत्थपकासिनी (संयुत्तनिकाय-अट्ठकथा)
5. मनोरथपूरणी (अंगुत्तरनिकाय-अट्ठकथा)
6. अभिधम्मपिटक की भिन्न-भिन्न अट्ठकथाएँ

इन सब अट्ठकथाओं का प्रणेता प्रायः बुद्धघोष को माना जाता है। इसके अतिरिक्त ‘खुद्दकनिकाय’ के ग्रन्थों पर भी भिन्न-भिन्न अट्ठकथाएँ हैं, जिनमें जातक-अट्ठकथा और धम्मपद-अट्ठकथा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जातक में केवल बुद्ध भगवान्के पूर्वजन्म से सम्बन्ध रखनेवाली गाथाएँ हैं, जो बिना जातक-अट्ठकथा के समझ में नहीं आ सकतीं। ये सब अट्ठकथाएँ भारत की प्राचीन संस्कृति का भण्डार हैं जिनमें इतिहास की विपुल सामग्री भरी पड़ी है।
प्राचीन काल से भारत के इतिहास में दो मुख्य परम्पराएँ दृष्टिगोचर होती हैं-एक ब्राह्मण परम्परा। दूसरी श्रमण-परम्परा। ब्राह्मण लोग वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे, वैदिक देवताओं की पूजा करते थे, हिंसामय यज्ञ-याग में विश्वास रखते थे, तथा वर्ण और आश्रम-व्यवस्था को स्वीकार करते थे। श्रमणों ने इन बातों को मानने से इनकार किया। वेदों के स्थान पर उन्होंने लोक-प्रचलित कथाओं को अपनाया, वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर मनन, चिन्तन, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, आत्मशुद्धि आदि को प्रधानता दी और जाति-व्यवस्था के नाम पर कर्म-व्यवस्था स्वीकार की।

आपस्तम्ब, वसिष्ठ, गौतम, बोधायन आदि ब्राह्मण-ग्रन्थों में अनेक जगह संन्यास, तपश्चरण, भिक्षा-वृत्ति, वस्त्र-त्याग, आत्मचिन्तन, ब्रह्मचर्य, समभाव आदि के उल्लेख मिलते हैं, जो श्रमण संस्कृति के आचार-व्यवहार के द्योतक हैं।
उपनिषद् काल में तो ब्रह्मविद्या क्षत्रियों की विद्या हो जाती है, और क्षत्रिय ब्राह्मणों को उपदेश देते हैं। महाभारत-काल में अहिंसा और त्याग की पराकाष्ठा के अनेक उपाख्यान रचे गये हैं, जिससे श्रमण संस्कृति का पर्याप्त विकास हुआ।
महाभारत के शान्तिपर्व में संसार की उपमा एक दुर्गम वन से देते हुए बताया है कि कोई मनुष्य जंगल के भयानक जन्तुओं से डरकर कुएँ के किनारे खड़े हुए एक वृक्ष की शाखा पकड़कर कुएँ में लटक जाता है, और वृक्ष पर लगे हुए मधुमक्खियों के छत्ते में-से बूँद-बूँद गिरनेवाले मधुपान के लोभ से वहाँ से नहीं हटना चाहता। यही उपमा जैन और बौद्ध ग्रन्थों में भी पायी जाती है। बिण्टरनीज़ आदि विद्वानों का मानना है कि इस प्रकार के अनेक आख्यान श्रमण-काव्य (ascetic poetry) के प्रतीक बने, जिन्हें श्रमण विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से अपने लोक-उपदेशों में समाविष्ट कर जनता में धर्म-प्रचार का साधन बनाया।

बौद्ध और जैन धर्म में समानताएँ और भी अधिक मात्रा में पायी जाती हैं। इसका कारण यह है कि ये दोनों धर्म एक ही देश में पनपे। दोनों ने वेद, वर्ण-व्यवस्था, यज्ञ-याग आदि को अस्वीकार कर लोकभाषा का आश्रय लिया और लोकोपयोगी कथा-साहित्य द्वारा जनता तक पहुँचने का प्रयत्न किया। उदाहरण के लिए, ‘चित्तसंभूत जातक’ के अन्तर्गत चित्र और संभूत की कथा, ‘हत्थिपाल जातक’ के अन्तर्गत राजा इषुकार की कथा, ‘मातंग जातक’ के अन्तर्गत मातंग की कथा का रूपान्तर जैनों के ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ में मिलता है। ’महाउम्मग्ग जातक’ के अन्तर्गत कई कथाएँ जैनों की ‘आवश्यकनिर्युक्ति’ और ‘आवश्यकचूर्णि’ की रोहक की कहानियों के रूप में पायी जाती हैं। ‘छत्रक जातक’ में राजा के उच्चासन पर बैठकर विद्या सीखने की कथा की तुलना जैनों की ‘दशवैकालिकचूर्णि’ में वर्णित राजा श्रेणिक और चाण्डाल की कथा के साथ की जा सकती है। जैनों की ‘नायाधम्मकहा’ के अश्वरूपधारी यक्ष का चम्पा के दो व्यापारियों को अपनी पीठ पर बैठाकर ले जाने की कथा का रूपान्तर बौद्धों के दिव्यावदान में मिलता है। जैनों के ‘रायपसेणियसुत्त’ में वर्णित केशी-प्रदेशी की तुलना दीघनिकाय के ‘पायासिसुत्त’ के साथ की जा सकती है। दुम्मुह, करकण्डु, नग्गजि और नमि नामक प्रत्येक-बुद्धों की कथाएँ जैनों के ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ और बौद्धों के ‘कुम्भकार जातक’ में बहुत कुछ समान रूप से पायी जाती हैं। कुम्मापुत्त स्थविर की कथा दोनों साम्प्रदायों के ग्रन्थों में मिलती हैं।

अचिरावती (राप्ती) नदी की बाढ़ में श्रावस्ती नगरी के नष्ट होने की परम्परा ‘मच्छ जातक’ और जैनों की ‘आवश्यकचूर्णि’ दोनों में समान रूप से सुरक्षित है। मगधी भाषा के विषय में जैनों के ‘समवायांग’ और बौद्धों की ‘विभंग अट्ठकथा’ (पृ.381) में कहा गया है कि यह भाषा पशु-पक्षियों तक की समझ में आ सकती थी।
इसके अतिरिक्त, ऐसे अनेक आचार-विचार, उपदेश-वाक्य, गाथाएँ और पारिभाषिक शब्द हैं जो जैन और बौद्ध ग्रन्थों में समान रूप से मिलते हैं। उदाहरण के लिए, पाणातिपात, अदिन्नादान, आसव, फासुविहार, यापनीय, तसथावर, गन्धकुटी, पुरिसाजानीय, वग्घावच्च (व्याघ्रापत्य नाम की शाखा) आदि अनेक शब्दों का प्राकृत और पालि साहित्य में समान रूप से व्यवहार हुआ है।
बौद्ध के संयुत्तनिकाय, जातक, धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरगाथा, और थेरीगाथा की अनेक गाथाएँ जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, सूत्रकृतांग और आचारांग की गाथाओं से मिलती-जुलती है।
इससे मालूम होता है कि दोनों सम्प्रदाय एक-दूसरे के बहुत समीप थे, तथा दोनों ने लोक-प्रचलित वार्ताओं को धर्म का जामा पहना कर जनहित के लिए उपयोग किया था।

प्रस्तुत कहानी-संग्रह को तीन भागों में विभक्त किया गया है-(क) शिक्षाप्रद कहानियाँ, (ख) पशु-पक्षियों की कहानियाँ और (ग) जीवन-कहानियाँ। प्रथम भाग में बाईस, दूसरे में पन्द्रह और तीसरे में पाँच कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ अधिकतर जातक कथाओं से ली गयी हैं। जातकों के विषय में कहा जा चुका है। जातक कथाएँ किसी सम्प्रदाय विशेष की कथाएँ न होकर सर्वसाधारण में प्रचलित कथाएँ हैं। यही कारण है कि उनका देश-विदेश में प्रचार
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1.तुलनीय-
(1) कति हं चरेय्य सामञ्ञं चित्तं चे न निवारेय्य।
पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानुगो।। (संयुत्त.1.2.7)
कहं न कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए।
पए पए विसीयंतो संकप्पस्स वसं गओ।। (दसवेयालिय 2.1)

(2) धिगत्थु तं विसं वन्तं यमहं जीवितकारणा।।
वंतं पच्चावमिस्सामि मतम्मे जीविता वरं।। (विसवन्त जातक)
धिगत्थु ते जसोकामी जो तं जीवियकारणा।
वंतं इच्छसि आवेउं ! सेयं ते मरणं मवे।। (दसवेयालिय 2.7)

(3) यथापि भमरो पुप्फं वण्णगंधं अहेठयं।
पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे।। (इल्लीस जातक)
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियई रसं।
न य पुप्फं किलामेइ सो य णीणेइ अप्पयं।। (दसवेयालिय 1.2)

(4) अमित्थनय पज्जुन्न ! विधिं काकस्स नासय।
काकं सोकाय रन्धेहि मंच सोका पमोचय।। (मंच्छ जातक)
वरसि देव कुणालाए दस दिवसाणि पंच च।
मुट्ठिमेताहिं धाराहिं जहा रत्तिं तहा दिवं।। (आवश्यकचूर्णि, पृ. 601)

जैन और बौद्ध ग्रन्थों की अन्य सामान्य गाथाओं के लिए देखिए, ‘एनेल्स ऑफ भण्डारकर इंस्टिट्यूट जर्नल’ (जुलाई 1939) में डॉ. ए. एम. घाटगे का लेख हुआ तथा पूर्व और पश्चिम के देशो में भारतीय संस्कृति और सभ्यता को फैलाने का वे साधन बनीं।
इन कथाओं में ‘बोधिसत्त्व’ कभी सिंह, कभी हाथी, कभी बन्दर, कभी तपस्वी और कभी चाण्डाल की योनि में जन्म लेते हैं और अपने सदाचरण द्वारा लोक हित करते हैं।
पहले भाग की बाईस कहानियों में से सोलह जातकों में से, चार धम्मपद-अट्ठकथाओं में से, और दो अंगुत्तरनिकाय-अट्ठकथा में से ली गई हैं।

इन कहानियों से बुद्धकालीन अनेक रीति-रिवाजों पर प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणिय़ाँ वेदपाठी और लक्षणशास्त्र की पण्डिता होती थीं। माँ-बाप की सेवा न करनेवाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। बड़े-बड़े शहरों में फेरीवाले अपने मोहल्ले बाँटकर सौदा बेचते थे। लोग जादू-मन्तर और ग्रह-नक्षत्र आदि में विश्वास रखते थे।
बुद्धकाल में तक्षशिला विद्या का बड़ा भारी केन्द्र था। ग़रीब-से-ग़रीब विद्यार्थियों से लेकर बड़े-बड़े राजकुमार तक विद्याध्ययन के लिए वहाँ जाते थे। अपने शहरों में प्रसिद्ध आचार्य के होते हुए भी राजा अपने पुत्रों को उनके मान-मर्दन के लिए तथा दुनियादारी सिखाने के लिए दूर देशों में विद्या पढ़ने भेजते थे।
मालूम होता है कि उन दिनों सदाचरण के कारण बहुत काम लोग अकाल मृत्यु के ग्रास होते थे।
उस ज़माने में जल और स्थल द्वारा ख़ूब व्यापार होता था। बड़े-बड़े व्यापारी अपने कारवाँ लेकर देश-विदेश में व्यापार करने के लिए जाते थे।

इन कहानियों में अपवाद को कैसे जीतना, किसी के सामने दीनता के वचन न कहना, आजादी से मिलने वाली रूखी-सूखी रोटी खाकर सन्तुष्ट रहना, किसी वस्तु की इच्छा करने से पहले उसे प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करना आदि विषयों का मार्मिक चित्रण है।
‘मूर्ख मल्लाह’ तथा ‘ऊँच और नीच’ नामक कहानियाँ सुन्दर और शिक्षाप्रद हैं।
सामाजिक जीवन का चित्रण करने वाली कहानियों में ‘सेठानी और उसकी दासी’, ‘धन का मद’, ‘दुनिया से धर्म उठ गया’ आदि रोचक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी हैं।
‘कंजूस ब्राह्मण’, ‘मौत की दवा’, ‘मरे हुए लौटकर नहीं आते’ कहानियाँ हृदयस्पर्शी हैं। ‘दोनों में कौन बड़ा ?’ कहानी में ‘शत्रु को क्षमा से जीतो’ इस बौद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

‘यमराज को भी डर’ कहानी में सामंती समाज पर जबर्दस्त उपहास है।
दूसरे भाग में पन्द्रह कहानियाँ हैं जो जातकों में से ली गई हैं।
ये कहानियाँ सरल और शिक्षाप्रद हैं। इनमें पशु-पक्षी किस प्रकार आपस में मिलकर एक दूसरे की मदद करते हैं, राजकुमार किस प्रकार कृतघ्नतापूर्ण बर्ताव करता है, हिम्मत रखने से शक्तिशाली शत्रु को भी कैसे परास्त किया जा सकता है, बात का बतंगड़ कैसे बन जाता है, शत्रु की शक्ति न जानकर काम करने का क्या फल होता है, दो की लड़ाई से तीसरे का लाभ कैसे होता है, एकता से कैसे शक्ति प्राप्त होती है, जीभ पर संयम न रखने पर क्या कुफल होता है-आदि विषयों का रोचक वर्णन किया गया है।
‘तोते का ऋण-बन्धन’ कहानी बच्चों के लिए उपयोगी है।
‘मनुष्यों का समाज’ कहानी में तत्कालीन समाज पर तीखा व्यंग्य है।
तीसरे भाग में पाँच कहानियाँ हैं। इनमें एक महावग्ग की, एक दीघनिकाय और उसकी अट्ठकथा की, एक धम्मपद अट्ठकथा की और दो मज्झिमनिकाय की हैं।

इन कहानियों से अनेक बातों का पता लगता है। उदाहरण के लिए, उस ज़माने में वैद्यकशास्त्र उन्नति पर था। वैद्य लोग चीर-फाड़ में कुशल होते थे। प्राचीन नगरियाँ समृद्धशाली थीं और उनमें गणिकाओं का विशिष्ट स्थान होता था। लिच्छवियों का शासन गणशासन था, जिसकी प्रशंसा स्वंय बुद्ध भगवान् ने की थी। सेठ लोग अतुल धन-सम्पत्ति के स्वामी होते थे। स्त्रियों की दशा अच्छी थी। वे कार्य-कुशल होती थीं और स्वतंत्रापूर्वक बाहर आ-जा सकती थीं। बौद्ध और जैन उपासकों में परस्पर विवाह-शादियाँ होती थीं।
कुछ कहानियाँ विश्व-साहित्य की दृष्टि से महत्त्व की हैं। उदाहरण के लिए ‘मौत की दवा’, ‘कृतघ्न राजकुमार’ आदि कहानियाँ भारत के बाहर भी पहुँची हैं। वे कथाएँ महाभारत, रामायण, जैन साहित्य, कथासरित्सागर, तन्त्राख्यायिक, पंचतन्त्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियाँ, अरेबियन नाइट्स आदि में भिन्न-भिन्न रूप में पायी जाती हैं।
बुद्ध जीवन के महान् कलाकार थे। वे लोगों में मिल-जुलकर रहते थे। जो कोई उनके दर्शन के लिए जाता, उसकी कुशल-वार्ता पूछते थे। उसकी कठिनाई समझ, नेक सलाह देकर उसका मार्ग-प्रदर्शन करते थे। उनका उपदेश बहुजनों के हित के लिए और बहुजनों के सुख के लिए होता था। उनके हृदय में मनुष्य मात्र के लिए असीम करुणा थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने संसार को अपना उपदेश सुनाया था। यही कारण है कि भगवान् बुद्ध के उपदेश इतने सुन्दर, सरल और हृदयस्पर्शी हैं।

शिक्षाप्रद कहानियाँ

लोक-अपवाद को जीतना

कुरु देश में मागंदिय नाम का अग्निपूजक ब्राह्मण रहता था। मागंदिया उसकी एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। मागंदिय ने अपनी कन्या के लिए वर की बहुत खोज की, परन्तु योग्य वर न मिला। बड़े-बड़े कुलों से कन्या की मँगनी आयी, लेकिन मागंदिया को वर पसन्द न आया।
एक दिन बुद्ध भगवान् प्रातःकाल अपना पात्र और चीवर लेकर नगर के बाहर ब्राह्मण के अग्नि-स्थान के पास खड़े हुए।
बुद्ध को देख ब्राह्मण ने सोचा- इसके समान किसी अन्य पुरुष का मिलना दुर्लभ है। मैं क्यों न इसके साथ अपनी कन्या की शादी कर दूँ ?
ब्राह्मण ने भगवान् से निवेदन किया-‘‘हे श्रमण ! मैंने अपनी कन्या के लिए वर की बहुत खोज की, मगर कोई वर न मिला। बड़े भाग्य से आप मिले हैं। मागंदिया बहुत रूपवती है। वह सचमुच आपके चरणों की दासी बनने योग्य है।’’
इतना कह ब्राह्मण अपनी कन्या को लाने के लिए चल दिया। बुद्ध को वह वहीं ठहरने के लिए कहता गया।
जल्दी-जल्दी घर पहुँच ब्राह्मण अपनी पत्नी से बोला-‘‘भद्रे ! कन्या के लिए वर मिल गया है। जल्दी करो, वस्त्राभूषणों से सज्जित कर मागंदिया को ले चलो।’’

नगर के लोगों को जब मालूम हुआ कि मागंदिया को अपनी कन्या के लिए वर मिल गया है तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भी ब्राह्मण के साथ-साथ वर देखने चले।
बुद्ध उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र गमन कर गये थे। अतः ब्राह्मणी को जब वहाँ कोई न दिखायी दिया तो उसने ब्राह्मण से जिज्ञासा व्यक्त की। ब्राह्मण बोला-‘‘मैं तो उससे यहीं रुकने को कह गया था, किन्तु वह न जाने कहाँ चला गया !’’
इधर-उधर ढूँढ़ने के बाद ब्राह्मण को बुद्ध के पद-चिह्न दिखाई दिये। ब्राह्मणी लक्षणशास्त्र की पण्डित और तीनों वेदों में पारंगत थी। उसने लक्षण विचारकर कहा कि ये पद-चिह्न किसी विषयभोगी के नहीं, किसी तपस्वी के जान पड़ते हैं।
ब्राह्मण को बहुत ग़ुस्सा आया। उसने अपनी पत्नी से कहा-‘‘ब्राह्मणी ! तुम्हें हमेशा पानी में मगर और घर में चोर दिखाई देते हैं। तुम्हें कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं।’’

ब्राह्मणी ने उत्तर दिया-‘‘आप चाहे जो कहें, ये पैर किसी विषयभोगी के नहीं हो सकते।’’
ब्राह्मण ने बुद्ध को दूर से देख ब्राह्मणी से कहा-‘‘देखो, देखो, वह है मागंदिया का वर !’’ और तीर की तरह बुद्ध के पास जाकर बोला-‘‘हे भिक्षु ! मैं आपकी सेवा में अपनी कन्या समर्पित करता हूँ।’’
बुद्ध ने कोई उत्तर न देकर ब्राह्मण से कहा-‘‘देखो ब्राह्मण ! अपने महाभिनिष्क्रमण के समय से लगाकर अजापालनिग्रोध वृक्ष के नीचे बोधि प्राप्त करने तक कामदेव ने मुझे कितने कष्ट दिये ! कितना सताया ! जब वह मेरा कुछ न बिगाड़ सका तो एक दिन वह उदास होकर बैठा था कि इतने में उसकी कन्याएँ वहाँ आयीं और उसे सान्त्वना देकर कहने लगीं-‘‘पिताजी, आप क्यों चिन्ता करते हैं। आज्ञा हो तो हम बुद्ध का ध्यान भंग करें।’ लेकिन हे ब्राह्मण ! विषय-भोगों के प्रति मेरी तनिक भी कामना नहीं। यह शरीर मल-मूत्र का भण्डार है। मैं इसका स्पर्श तक करना नहीं चाहता।’’
बुद्ध की बातें सुनकर ब्राह्मण-कन्या मागंदिया को बहुत बुरा लगा। उसने सोचा-यदि इस भिक्षु को मेरी आवश्यकता नहीं तो कोई बात नहीं, लेकिन यह मेरा अपमान क्यों करता है ? मैं अच्छे कुल में पैदा हुई हूँ, भोग-विलास की मुझे कमी नहीं, सौन्दर्य मेरे चरणों में लोटता है, निस्सन्देह मैं योग्य पति पाऊँगी। फिर यह भिक्षु मुझे इस तरह के वचन क्यों कहता है ? मैं बदला लिये बिना न रहूँगी।

दिन जाते देर नहीं लगती। कुछ समय के बाद मागंदिया के माता-पिता ने अपने भाई चुल्ल मागंदिय को अपनी कन्या सौंपकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
चुल्ल मागंदिय ने सोचा मागंदिया को किसी राजा की रानी बनना चाहिए। वस्त्राभूषणों से सजाकर वह उसे कौशाम्बी ले गया और राजा उदयन के साथ विवाह कर दिया।
राजा उदयन मागंदिया को बहुत चाहता था। उसने उसे पटरानी के पद पर अभिषिक्त कर दिया। पाँच सौ दासियाँ उसकी सेवा में रहने लगीं।
एक बार रानी मागंदिया अपने महल से उतरकर घूम रही थीं। पता लगा कि श्रमण गौतम कौशाम्बी आ रहा है। उसने नगर वासियों को प्रलोभन देकर आदेश दिया कि जब श्रमण गौतम नगरी में प्रवेश करें तो वे अपने नौकर-चाकर के साथ मिलकर उसे अपशब्द कह नगर से निकाल दें।

बुद्ध ने नगर में प्रवेश किया तो लोग उन्हें चोर, मूर्ख, ऊँट, बैल, गधा, नारकी, पशु आदि शब्दों से सम्बोधित कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहने लगे-‘‘याद रख श्रमण, तुझे अच्छी गति मिलनेवाली नहीं। तू मरकर दुर्गति को प्राप्त होगा !’’
नगरवासियों के ये वचन सुनकर भगवान् के प्रिय शिष्य आनन्द ने बुद्ध से कहा-‘‘भन्ते ! ये नागरिक हमें अपशब्द कहते हैं। चलिए कहीं अन्यत्र चलकर रहें।’’
बुद्ध-आनन्द, कहाँ जाना चाहते हो ?

आनन्द-किसी दूसरे नगर में ! बुद्ध-यदि वहाँ भी लोगों ने अपशब्द कहे तो कहाँ जाओगे ? आनन्द-अन्यत्र कहीं ! बुद्ध-अगर वहाँ के लोगों ने भी ऐसा बर्ताव किया ? आनन्द-भन्ते, वहाँ से अन्यत्र चले जाएँगे ! बुद्ध-आनन्द, यह ठीक नहीं ! देखो, जहाँ लोकापवाद होता हो, वह जब तक शान्त न हो जाये, तब तक, उस नगर को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहिए। तथा आनन्द, जानते हो अपवाद करने वाले लोग कौन हैं ? आनन्द-भन्ते, नौकर-चाकर तक हमें अपशब्द कहते हैं ! बुद्ध-देखो आनन्द, मैं संग्राम में आगे बढ़े हुए हाथी के समान निश्चल हूँ ! यदि चारों दिशाओं से हाथी को तीर आकर लगें तो वीरतापूर्वक डटे खड़े रहना चाहिए। इसी प्रकार अनेक दुष्ट पुरुषों के अपवाद को सहन करना मेरा कर्तव्य है। याद रखो आनन्द, वश में किये हुए खच्चर, सिन्धु देश के घो़ड़े तथा जंगली हाथी उत्तम समझे जाते हैं, लेकिन इन सबसे उत्तम वह है जो अपने आपको वश में रखता है !

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